देश के लाखों केंद्रीय कर्मचारी और पेंशनभोगी इन दिनों सिर्फ एक सवाल पूछ रहे हैं — आखिर आठवां वेतन आयोग कब आएगा और उसमें वेतन कितना बढ़ेगा?
सातवें वेतन आयोग को लागू हुए अब लगभग दस साल पूरे हो चुके हैं, और भारत सरकार की परंपरा रही है कि हर दशक में कर्मचारियों की वेतन संरचना की समीक्षा होती है। लेकिन इस बार, हवा में सिर्फ उम्मीदें नहीं हैं, एक तरह की अनिश्चितता की गंध भी है।
फिटमेंट फैक्टर को लेकर जो ताजा रिपोर्ट्स सामने आई हैं, उन्होंने कर्मचारियों के बीच बेचैनी और बढ़ा दी है। अब तक यह माना जा रहा था कि आठवें वेतन आयोग में फिटमेंट फैक्टर 2.86 या उससे अधिक तय किया जाएगा, जिससे कर्मचारियों को वास्तविक राहत मिलेगी। लेकिन अंदरूनी सूत्रों और कुछ आर्थिक विश्लेषकों की मानें तो सरकार सिर्फ 1.92 पर विचार कर रही है — यानी लगभग आधी उम्मीदों पर पानी फिरने जैसा फैसला।
सरकारी खजाने पर बोझ का तर्क नई बात नहीं है। हर वेतन आयोग के समय यही कहा जाता रहा है कि बढ़ा हुआ फिटमेंट फैक्टर सरकार की वित्तीय स्थिति पर असर डाल सकता है। लेकिन इस बार का संदर्भ अलग है — देश की अर्थव्यवस्था अभी भी महामारी के बाद के असर से पूरी तरह नहीं उबरी है, और राजकोषीय घाटा नियंत्रण में रखना सरकार की प्राथमिकता बनी हुई है।
यही वजह है कि इस बार सरकार कर्मचारियों की उम्मीदों और आर्थिक संतुलन के बीच फंसी नजर आ रही है।
वर्तमान में लेवल-1 के कर्मचारियों को ₹18,000 प्रतिमाह का मूल वेतन मिलता है।अगर 1.92 का फिटमेंट फैक्टर लागू होता है तो यह बढ़कर ₹34,560 हो जाएगा।
पहली नजर में यह बढ़ोतरी अच्छी लग सकती है, लेकिन जब इसे महंगाई दर, जीवनयापन की लागत और पिछले 10 वर्षों की वास्तविक मुद्रास्फीति से तुलना की जाती है — तो यह बढ़ोतरी मात्र प्रतीकात्मक राहत बनकर रह जाती है।
कर्मचारी संगठनों का कहना है कि अगर सरकार सच में कर्मचारियों के हितों की रक्षा करना चाहती है तो कम से कम 2.5 का फिटमेंट फैक्टर लागू किया जाना चाहिए।
आंतरिक रूप से कुछ यूनियनें अब सरकार से सीधे संवाद की तैयारी में हैं। कई संगठनों ने ये तक कहा है कि अगर कर्मचारियों की वास्तविक मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो वे आंदोलन का रास्ता चुनने से पीछे नहीं हटेंगे।
उनका कहना है — “देश की मशीनरी वही चला रहे हैं जिनके लिए आज फैसला टल रहा है। अगर उनका मनोबल टूटेगा, तो इसका असर हर विभाग पर पड़ेगा।
यहां सवाल सिर्फ वेतन का नहीं है, बल्कि उस भरोसे का है जो हर बार एक नए आयोग के साथ जुड़ता है।
कर्मचारी मानते हैं कि हर दस साल में सरकार उन्हें नई उम्मीद देती है, लेकिन अगर इस बार फैसला महज वित्तीय संतुलन के नाम पर सीमित कर दिया गया, तो यह एक मनोवैज्ञानिक झटका साबित हो सकता है।
सरकार अभी तक इस पर औपचारिक बयान देने से बच रही है।
लेकिन मंत्रालय से जुड़े सूत्रों का कहना है कि चर्चा जारी है और अंतिम निर्णय “आर्थिक परिप्रेक्ष्य” देखकर लिया जाएगा।
यानी फिलहाल जो दिख रहा है, वही तय नहीं है — लेकिन जो सुनाई दे रहा है, उसने निश्चित रूप से केंद्रीय कर्मचारियों के बीच चिंता की लकीरें गहरी कर दी हैं।
अगर फिटमेंट फैक्टर को 1.92 पर सीमित किया गया, तो यह सिर्फ वेतन का मामला नहीं रहेगा। यह एक संकेत होगा कि सरकार किस तरह की आर्थिक नीति अपनाने जा रही है ऐसी नीति जो कर्मचारियों की अपेक्षाओं से ज्यादा, राजकोषीय अनुशासन पर टिकेगी।
आने वाले महीनों में इस फैसले की दिशा यह बताएगी कि सरकार कर्मचारी हितों को कितना प्राथमिकता देती है — और यह सवाल अब सिर्फ कर्मचारियों का नहीं, बल्कि देश की कार्यक्षमता और नीतिगत संवेदनशीलता का भी बन चुका है।