Bihar चुनाव आयोग (ECI) आज शाम 4 बजे बिहार विधानसभा चुनाव और कुछ राज्यों के उपचुनाव की तारीखों का ऐलान करने जा रहा है। यह घोषणा ऐसे समय हो रही है जब आयोग ने दो दिन तक बिहार में चुनावी तैयारियों की समीक्षा की — राजनीतिक दलों और प्रवर्तन एजेंसियों से मुलाकात की — ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि चुनाव “मुक्त, निष्पक्ष और शांतिपूर्ण” हों।लेकिन असली सवाल यह है — क्या चुनाव आयोग की नई पहलों से बिहार की सियासत में पारदर्शिता आएगी, या ये सिर्फ प्रशासनिक चमक का हिस्सा हैं?
एनडीए बनाम महागठबंधन: फिर वही पुराना मुकाबला, नई रणनीति के साथ
243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में फिलहाल एनडीए के पास 131 सीटें हैं, जबकि महागठबंधन के पास 111। मुकाबला सीधा है — नीतीश कुमार बनाम तेजस्वी यादव।
जहां एनडीए ‘सतत विकास’ और ‘सुशासन’ का नारा दोहरा रही है, वहीं महागठबंधन बेरोज़गारी, पलायन और भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाकर जनता के बीच ‘परिवर्तन’ का माहौल बनाने में जुटा है।
राजनीतिक तापमान तेजी से बढ़ रहा है। आरोप-प्रत्यारोप के दौर में हर पार्टी इस चुनाव को “निर्णायक जनादेश” बताने में लगी है।मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने कहा कि बिहार में 17 नई पहलें लागू की गई हैं — कुछ मतदान के दौरान, कुछ मतगणना के दौरान।
मुख्य बिंदु:
- हर बूथ पर 100% वेबकास्टिंग,
- BLOs और चुनावकर्मियों का मानदेय दोगुना,
- ERO और AERO को पहली बार मानदेय,
- मतदान केंद्रों के बाहर मोबाइल जमा काउंटर,
- EVM पर प्रत्याशी की रंगीन तस्वीरें।
यह सब सुनने में आधुनिक लगता है — लेकिन चुनावी ईमानदारी का असली पैमाना सिर्फ तकनीक नहीं, जनता का भरोसा है।
बिहार जैसे राज्य में जहां “पैसे, प्रभाव और प्रशासन” की तिकड़ी चुनावी संस्कृति में गहराई तक धंसी है, वहां सवाल उठता है —
क्या सिर्फ वेबकास्टिंग से वोटर को भयमुक्त वातावरण मिल जाएगा?
त्योहारों के बाद चुनाव की मांग — एक सामाजिक अपील या राजनीतिक रणनीति?
अधिकांश पार्टियों ने आयोग से मांग की है कि चुनाव छठ पूजा के बाद कराए जाएं — ताकि बाहर रहने वाले बिहारी मतदाता भी वोट डाल सकें।
JD(U) और BJP दोनों ने यह मांग रखी है, जबकि विपक्ष ने इसे “जनसहभागिता का सवाल” बताया है।
लेकिन चुनावी विश्लेषकों के अनुसार, यह मांग भावनात्मक नहीं, सामरिक है — क्योंकि छठ के बाद लौटने वाली बड़ी आबादी ग्रामीण वोट बैंक पर निर्णायक असर डालती है।सितंबर 30 को जारी फाइनल वोटर लिस्ट में 7.42 करोड़ मतदाता दर्ज हैं, जो जून की तुलना में करीब 47 लाख कम हैं।
प्रश्न यह भी है कि इतने बड़े पैमाने पर मतदाता नाम कैसे हटे — और क्या इससे किसी खास क्षेत्रीय या सामाजिक समूह पर असर पड़ेगा?
अब तक आयोग ने इस पर कोई स्पष्ट स्पष्टीकरण नहीं दिया है।बिहार का चुनाव हमेशा से सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि लोकतंत्र की परिपक्वता का परीक्षण रहा है।
आयोग की पहलें स्वागतयोग्य हैं, लेकिन जनता अब दिखावे नहीं — जवाबदेही और निष्पक्षता की ठोस गारंटी चाहती है।
जब तक मतदाता यह महसूस नहीं करेगा कि उसका वोट सुरक्षित और प्रभावशाली है, तब तक चाहे 17 नहीं, 70 पहलें भी भरोसा नहीं लौटा पाएंगी।