बिहार में शिक्षा हमेशा चुनावी वादों का बड़ा मुद्दा रही है। लेकिन, पर्दे के पीछे जो खेल चलता है, वह किसी भी छात्र, शिक्षक और अभिभावक के भरोसे को तोड़ देने के लिए काफी है। यह रिपोर्ट केवल सतह को नहीं छूती, बल्कि अंदर तक जाकर बताती है कि कैसे टेंडर, ट्रांसफर और किताब छपाई जैसे साधारण दिखने वाले काम भी करोड़ों के खेल बन जाते हैं।
पहला अध्याय: टेंडर का खेल – बोली से पहले सेटिंग
शिक्षा विभाग की हर बड़ी खरीद—चाहे वह फर्नीचर हो, मिड-डे मील का सामान या किताबें—टेंडर प्रक्रिया से होती है।
लेकिन असलियत यह है कि:
- टेंडर फाइल खुलने से पहले ही विजेता तय होता है।
- छोटे और नए कॉन्ट्रैक्टर को बाहर रखने के लिए eligibility clause ऐसा लिखा जाता है कि केवल “fix” कंपनी ही qualify कर पाए।
- कमीशन तय होता है – फाइल पास करने वाले अफसर से लेकर बड़े अधिकारियों तक हर जगह हिस्सेदारी।
अनुमान: हर साल 1000 करोड़ से अधिक का टेंडर होता है, और इसमें से कम से कम 20-25% सीधे भ्रष्टाचार की जेब में चला जाता है।
दूसरा अध्याय: ट्रांसफर–पोस्टिंग का रैकेट
शिक्षक और शिक्षा अधिकारियों का ट्रांसफर बिहार में “पोस्टिंग उद्योग” कहलाता है।
- अच्छी पोस्टिंग (जैसे जिला मुख्यालय या शहरी स्कूल) के लिए लाखों रुपये तक का रेट तय है।
- जिनके पास पैसे नहीं, उन्हें या तो दूरदराज भेज दिया जाता है या “सज़ा पोस्टिंग” में डाल दिया जाता है।
- यह सब एक “अनौपचारिक दरबार” में होता है—जहां नेता, अफसर और दलाल बैठकर लिस्ट बनाते हैं।
गौर करने वाली बात: यह केवल शिक्षकों की जिंदगी प्रभावित नहीं करता, बल्कि बच्चों की पढ़ाई का भी नुकसान करता है।
तीसरा अध्याय: किताब छपाई घोटाला – शिक्षा का असली मज़ाक
हर साल लाखों किताबें छपती हैं ताकि बच्चों तक समय पर पहुंचे। लेकिन:
- छपाई कंपनियों का खेल: कुछ कंपनियां किताबें समय पर छाप ही नहीं पातीं, फिर भी पूरा भुगतान ले लेती हैं।
- पेपर क्वालिटी: किताबें अक्सर इतनी घटिया कागज पर छपी होती हैं कि 6 महीने भी नहीं टिकतीं।
- सप्लाई चेन: कई बार किताबें गोदाम से ही गायब हो जाती हैं, और बच्चे साल भर बिना किताब के पढ़ने को मजबूर रहते हैं।
सबसे बड़ा सवाल: शिक्षा विभाग हर साल अरबों का बजट दिखाता है, लेकिन बच्चों तक किताबें क्यों नहीं पहुंच पातीं?
सिस्टम की चुप्पी और जनता की हार
इस पूरे खेल में हारे कौन?
- बच्चे, जिन्हें सही शिक्षा नहीं मिलती।
- माता-पिता, जो हर साल उम्मीद रखते हैं कि इस बार सुधार होगा।
- ईमानदार शिक्षक, जिन्हें दबाव और भ्रष्टाचार में घुटन झेलनी पड़ती है।
और जीते कौन?
- दलाल, नेता, अफसर और ठेकेदार—जिन्होंने शिक्षा को अपना एटीएम बना लिया है।
जब तक टेंडर, ट्रांसफर और किताब छपाई जैसे मूल मुद्दों पर पारदर्शिता नहीं आती, तब तक बिहार का शिक्षा तंत्र केवल चुनावी नारा बनकर रह जाएगा।
शिक्षा से खेलना सिर्फ घोटाला नहीं है—यह आने वाली पूरी पीढ़ी के भविष्य से खिलवाड़ है।
Disclaimer
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