बिहार की राजनीति की कहानी जहां Part 1 में खत्म हुई थी—आजादी और कांग्रेस के वर्चस्व पर—वहीं से Part 2 शुरू होती है।
यह वो दौर था जब भारत आज़ाद तो हो गया था, मगर राजनीति अब भी कुछ हाथों में सिमटी हुई थी।बिहार, जिसने आज़ादी की लड़ाई में सबसे ज़्यादा कुर्बानियाँ दी थीं, अब एक नई लड़ाई लड़ने वाला था—विचारों की आज़ादी की।
1950 का दशक था। देश नई संवैधानिक व्यवस्था में ढल रहा था।बिहार में श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह की जोड़ी ने ज़मींदारी उन्मूलन कानून लागू किया—काग़ज़ पर ये समाजिक न्याय की शुरुआत थी, लेकिन ज़मींदारी की छाया अब भी गांवों के कोनों में थी।फिर आया वो कानून जिसने बिहार की अर्थव्यवस्था की रफ्तार तोड़ दी—Freight Equalization Policy।केंद्र ने कहा—कच्चा माल देश के किसी भी कोने में एक समान किराए पर भेजा जाएगा।पर नतीजा यह हुआ कि उद्योग, जो बिहार के संसाधनों के आसपास लगने चाहिए थे, वे सागर किनारे चले गए और बिहार रह गया सिर्फ अपने कोयले, लौह अयस्क और खनिजों की धूल में।पर राजनीति खालीपन नहीं सहती
कांग्रेस का एकछत्र शासन जब जनता के सवालों से टकराने लगा, तो उठे कुछ नए नाम—जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, और उनकी समाजवादी विचारधारा।
यहीं से बिहार में विपक्ष की आत्मा जन्मी।1957 और 1962 के चुनावों में कांग्रेस भले ही भारी बहुमत से जीती, लेकिन विपक्ष अब संगठित हो रहा था।
और फिर 1967 में बिहार की राजनीति ने एक ऐतिहासिक मोड़ लिया—जब पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी।
महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी यह “संयुक्त विधायक दल” की सरकार भारत की पहली बड़ी कोलेशन (गठबंधन) सरकार मानी गई।दायें-बायें दोनों विचारधाराओं के नेता एक साथ आए—जनसंघ से लेकर कम्युनिस्ट तक।लेकिन विचारों का यह संगम सिर्फ नौ महीने चला।इतनी विविधता साथ रह नहीं पाई—और सरकार गिर गई।बिहार ने पहली बार देखा कि राजनीति में एकता कितनी नाज़ुक चीज़ होती है।
फिर शुरू हुआ जातीय चेतना का दौर।बी.पी. मंडल और सतीश प्रसाद सिंह जैसे नेता पिछड़ी जातियों के हक में खड़े हुए।सतीश तीन दिन के लिए मुख्यमंत्री बने—इतिहास के सबसे कम अवधि वाले सीएम।उनके बाद बने बी.पी. मंडल—जिनका नाम आगे चलकर भारत के आरक्षण आंदोलन में अमर हुआ।लेकिन बिहार की राजनीति तब इतनी अस्थिर थी कि कुछ ही महीनों में चार मुख्यमंत्री बदले।लोग कहते थे—“बिहार में कुर्सी नहीं टिकती, बस नाम बदलते रहते हैं।”
1969 आते-आते कांग्रेस खुद दो हिस्सों में बंट गई—कांग्रेस (O) और कांग्रेस (R)।इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी से पहले ही सत्ता का केंद्रीकरण शुरू कर दिया था, और बिहार इस प्रयोग की प्रयोगशाला बन गया था।हर कुछ महीनों में मुख्यमंत्री बदला जाता—हरिहर सिंह, दरोगा प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर, भोला पासवान शास्त्री..सत्ता दिल्ली से खींची जा रही थी, और बिहार की सरकारें बस कठपुतलियाँ बनती जा रही थीं।
इसी अराजकता के बीच 1970 का दशक आया—भारत में महँगाई, बेरोज़गारी और असमानता चरम पर थी।बिहार के गाँवों में अब भी “ढोला प्रथा” जैसी कुप्रथाएँ चलती थीं—जहाँ दलित स्त्रियों पर जमींदारों का अत्याचार होता था।गरीबी, भुखमरी और अन्याय अब जनता के धैर्य की सीमा पार कर चुके थे।यही माहौल बना जेपी आंदोलन के लिए—जो आगे चलकर भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा जन आंदोलन साबित हुआ।
1974 में पटना की गलियों में छात्रों का ग़ुस्सा सुलग रहा था।मूल्यवृद्धि, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी ने उन्हें सड़कों पर ला दिया।जयप्रकाश नारायण, जो तब तक राजनीति से दूर रह रहे थे, इन युवाओं के बुलावे पर लौटे—और बिहार की धरती ने दोबारा “क्रांति” शब्द का अर्थ बदल दिया।
जेपी ने गांधी मैदान से नारा दिया — “संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।

यह आंदोलन सिर्फ बिहार नहीं, पूरे भारत में फैल गया।लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, रामविलास पासवान — यही वो छात्र नेता थे जिन्होंने इस आंदोलन से राजनीति में कदम रखा।लेकिन आंदोलन जितना तेज हुआ, सत्ता उतनी ही कठोर हो गई।1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल (Emergency) लागू किया।जेपी और उनके साथी जेलों में ठूंस दिए गए।अख़बारों की आवाज़ बंद कर दी गई, लोगों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए।
बिहार के जेलों में उस समय इतिहास लिखा जा रहा था लालू और नीतीश जैसे नौजवान वहीं से लोकतंत्र की असली कीमत समझ रहे थे।जब 1977 में इमरजेंसी खत्म हुई, तब देश ने पहली बार इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल किया और बिहार से उठा यह आंदोलन पूरे भारत में “जनता लहर” बन गया।
जनता पार्टी बनी — मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडिस, कर्पूरी ठाकुर और जयप्रकाश नारायण की विचारधारा पर खड़ी हुई।
और बिहार ने देखा अपना “जननायक” — कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने।उन्होंने पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिया, और बिहार में सामाजिक न्याय की औपचारिक शुरुआत हुई।लेकिन यह प्रयोग भी ज्यादा दिन नहीं चला।जनता पार्टी अंदरूनी मतभेदों और जातीय खींचतान में टूट गई।
1970 का यह दशक बिहार के लिए राजनीतिक चेतना का दशक था —जहाँ जनता ने पहली बार महसूस किया कि लोकतंत्र सिर्फ चुनाव नहीं, आंदोलन भी है।
यह वही दौर था जिसने बिहार को भारत की राजनीति का दिल बना दिया।अब सियासत में नई नस्ल उतर चुकी थी और ये नई पीढ़ी 1980 के बाद बिहार का चेहरा हमेशा के लिए बदलने वाली थी।









